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मुख्यधारा के मीडिया के निर्माण तत्व और प्रकृति

(अनुवाद: नरोत्तम)

मैं मीडिया के बारे में इसलिए लिख रहा हूँ, क्योंकि संपूर्ण बुद्धिजीवी संस्कृति में मेरी रुचि है और चूँकि मैं इसका एक हिस्सा भी रहा हूँ, इसलिए मीडिया के बारे में अध्ययन करना मेरे लिए आसान है. मीडिया का अध्ययन करते समय आप सुनियोजित जाँच प्रक्रिया अपना सकते हैं. इसमें कल के वक्तव्य को आज के परिप्रेक्ष्य में पिरोया जा सकता है. इसमें कई ऐसे सबूत होते हैंµ जिसके आधार पर किसी भी मसले से खेला जा सकता है और अपने हिसाब से चीजों को गढ़ा जा सकता है.

मेरी राय में मीडिया, किसी स्कॉलरशिप के अध्ययन या बुद्धिजीवियों के जर्नल से अलग नहीं है. मीडिया इनसे कुछ मायने में अलग जरूर है, लेकिन पूरी तरह से अलग कहना श्रेयस्कर नहीं होगा. इसमें अंतक्र्रियात्मकता होती है, लोग ऊपर जाते हैं और फिर शांत होकर बैठ जाते हैं.

अगर आप मीडिया या किसी संस्थान को समझना चाहते हैं, तो आपको उसका अवलोकन करना होगा. आप इसके आंतरिक संस्थागत संरचना से सवाल कर सकते हैं. बृहत्तर समाज में इसकी संस्थापना से जुड़ी चीजों को जानने की जुगत कर सकते हैं. आप इसे शक्ति और प्राधिकार के अन्य तंत्रों से जोड़ सकते हैं. अगर आप भाग्यशाली रहे, तो सूचना तंत्रा के कुछ प्रमुख लोग आपको बहुत कुछ बताएंगे. यह जन संपर्क की पर्ची की तरह नहीं होगा, लेकिन उनसे बहुत सारी जानकारियाँ आप जरूर बटोर सकते हैं. इस तरह आप काफी रुचिकर दस्तावेज एकत्रा कर सकते हैं.

मीडिया की प्रकृति जानने के लिए सूचना के तीन प्रमुख स्रोत हैं. अगर आप इन तरीकों का अध्ययन करना चाहते हैं, तो आपको उस वैज्ञानिक की तरह काम करना होगा, जो कुछ जटिल अणुओं या दूसरी चीजों पर शोध कर रहा हो. पहले आप संरचना को बड़े गौर से देखते हैं और फिर उस संरचना के आधार पर एक संकल्पना स्थापित करते हैं. इसी तरह मीडिया का अध्ययन करते समय आप पहले मीडिया उत्पादों की जाँच करते हैं और फिर अपनी संकल्पना की पुष्टि करते हैं. मीडिया अध्ययन के वक्त आपको सावधानीपूर्वक मीडिया उत्पादों की परख करनी चाहिए और मीडिया की संरचना को लेकर जो आपने अवधारणा कायम की थी, उसकी पुष्टि करने की कवायद करनी चाहिए.

तो जनाब, आपने क्या पाया. पहली बात तो यह है कि मीडिया के अलग-अलग रूपों का काम भी अलग होता है. मिसाल के तौर पर, मनोरंजन/हाॅलीवुड, सोप ओपेरा और यहाँ तक कि अखबार का भी काम अलग-अलग होता है. लेकिन ये सभी जनता के एक बड़े वर्ग को संबोधित करते हैं. इसके अलावा मीडिया में एक दूसरा क्षेत्रा हैµअभिजात मीडिया. कभी-कभी इसे एजेंडा सेटिंग मीडिया भी कहा जाता है. इनके पास संसाधनों की कमी नहीं होती है और ये अपने मुताबिक रूपरेखा संचालित करते हैं. न्यूयाॅर्क टाइम्स पढ़ने वाले लोग या तो धनी वर्ग से आते हैं या वे पाॅलिटिकल वर्ग से आते हैं. एक तरह से वे किसी न किसी क्षेत्रा के प्रबंधक होते हैं. वे पाॅलिटिकल मैनेजर, बिजनेस मैनेजर (काॅर्पोरेट कार्यकारियों की तरह), डाॅक्टोरल मैनेजर (यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर की तरह) की तरह व्यवहार करते हैं. कुछ ऐसे भी जर्नलिस्ट होते हैं, जो वस्तुओें को देखने और उसे समझने की जुगत में लगे रहते हैं. संभ्रांत मीडिया एक रूपरेखा तय करता है, जिसके आधार पर दूसरे लोग इसका परिचालन करते हैं. अगर आप एसोशिएटेड प्रेस देखें, तो उसमें समाचार का निरंतर प्रवाह जारी रहता है. दोपहर में वह एक समाचार ब्रेक करता है और उसके बाद कहा जाता है, ‘संपादक को सूचना: कल के न्ययाॅर्क टाइम्स में यह खबर मुख्य पृष्ठ पर होगा’ इसके पीछे तर्क यह है कि अगर आप डेटाॅन, ओहियों या कहीं ऐसे जगह किसी समाचार पत्रा के संपादक हैं, जहाँ संसाधनों की कमी है, तो इस तरीके से यह बताने की कोशिश की जाती है कि खबर क्या है. यहाँ पर बैठे संपादकों को यह सोचने की जरूरत नहीं है कि क्या खबर है और क्या नहीं है. यह उस एक चैथाई पेज की कहानियाँ हैं, जिनके जरिये आप अपने आॅडिएंस का ध्यान हटाते हैं तथा कुछ और कहने या स्थापित करने की कोशिश करते हैं. यह खबर आपको इसलिए भी रखनी चाहिए, क्योंकि न्यूयाॅर्क टाइम्स यह कहता है और इसलिए यह मानी समझा जाता है कि आप कल के लिए इस खबर पर गौर करें. अगर कोई संपादक डेटाॅन या ओहियो में बैठा है, तो उसके पास इस खबर को चुनने के अलावा कोई  चारा भी नहीं है, क्योंकि वहां संसाधनों की कमी है. अगर आप ऐसा नहीं करते हैं और दूसरे तरह की खबर बनाने की जुगत में लग जाते हैं, तो जल्द ही आप इस पर टीका टिप्पणी भी सुनने के लिए तैयार रहें. सैन जोस मरकरी की खबर मंे कैसा नाटक हुआ, यह तो आपने देखा होगा. इसलिए ऐसे बहुत से तरीके हैं, जहां सत्ता आपको गुमराह या पथभ्रमित करने के लिए बहुत सारे ताने बाने बुनती है. अगर इस परिपाटी को तोड़ने की कोशिश करते हैं, तो ज्यादा दिनों तक आप चलने वाले नहीं हैं. इस तरह की संरचना भली भांति काम कर रही है और अब लोग यह समझने लगे हैं कि यह स्पष्ट सत्ता या शंक्ति संरचना का परावर्तन है.

वास्तविक मास मीडिया लोगों का ध्यान बंटाने की कोशिश कर रहा है. उन्हें  जो करना है, करने दो, लेकिन हमलोगों को परेशान होने की जरूरत नहीं है (वे लोग जो शो चलाते हैं). सभी लोग प्रोफेशनल स्पोर्ट्स या सेक्स स्कैंडल या पर्सनालिटी और उनसे जुड़ी समस्याओं और इसी तरह की चटपटी बातों को जानने में रुचि रखते हैं. जो भी हो, यह एक गंभीर खबर तो बिल्कुल नहीं है. हालाँकि बड़े लोगों के लिए यह बड़ी बात हो सकती है.

सभ्रांत मीडिया क्या है, क्या एजेंडा बनाने का एक जरिया? मिसाल के तौर न्यूयाॅर्क टाइम्स और सीबीएस. पहली बात तो ये सभी बड़ी कंपनियाँ हैं और मुनाफे की मलाई काटते हैं. दूसरी बात कि ये मीडिया कंपनियाँ जेनरल इलेक्ट्रिक, वेस्टिंगहाउस आदि जैसी बड़ी कंपनियों के रहमोकरम पर चलती हैं. निजी अर्थव्यवस्था की शीर्षस्थ सत्ता संरचना का हिस्सा होती हैं ये मीडिया कंपनियाँ. कंपनियाँ मुख्य तौर पर ऊपर बैठे बड़े लोगों द्वारा नियंत्रित होती हैं. अगर आप उन आकाओं के मुताबिक काम नहीं करेंगे, तो आपको नौकरी से हाथ भी धोना पड़ सकता है. बड़ी मीडिया कंपनियाँ इसी आका तंत्रा का एक हिस्सा हैं.

इनकी संस्थागत व्यवस्था क्या हैं. यह मोटे तौर पर बराबर ही है. यह सरकार, दूसरी कंपनियों या विश्वविद्यालय से अंतक्र्रिया करती है और अपने आपको जोड़ती है. मीडिया भी एक तरह से विश्वविद्यालय के पैटर्न पर काम करती है. जैसे आप एक रिपोर्टर है और दक्षिण पूर्व एशिया या अफ्रीका पर एक खबर लिख रहे हैं. तो आपसे यह उम्मीद की जाती है कि बड़े विश्वविद्यालय में जायें और उनसे ये पूछंे कि क्या लिखना चाहिए और क्या नहीं. मिसाल के तौर पर बुकिंग इंस्टीटयूट या अमेरिकन इंटरप्राइज इंस्टीटयूट आपको लिखे जाने वाले शब्दों के बारे में बताएंगे. यह बाहरी संस्थान बहुत हद तक मीडिया से मेल खाते हैं.

उदाहरण के तौर पर, विश्वविद्यालय एक स्वतंत्रा संस्थान नहीं है. इसकी स्थापना स्वतंत्रा लोगों के जरिये जरूर होती है, जैसे  मीडिया की होती है, लेकिन इसका पूरा प्रारूप स्वतंत्रा नहीं है. और यही पैटर्न कंपनियों का भी होता है. फासिस्ट अवस्था भी कुछ इसी तरह की होती है. लेकिन संस्थान अपने आप में परजीवी होते हैं. ये संस्थान धन और सहायता के लिए कंपनियों और सरकार पर निर्भर होते हैं. मीडिया की स्थिति भी विश्वविद्यालय की तरह ही है. धन और अन्य लाभ के लिए भी इसे बाह्य तौर पर आश्रित रहना पड़ता है. इसके बाद अगर आप उनके रास्ते अख्तियार नहीं करते हैं, तो अंजाम खुद समझिए क्या होगा. आपने अगर काॅलेज की पढ़ाई की है, तो पता होगा कि शैक्षणिक तंत्रा आज्ञाकारिता और अनुकूलता के आधार पर ही चलता है. अगर आप ऐसा नहीं करते हैं, तो इसका मतलब है कि आप समस्या खड़ी कर रहे हैं.

एक उदाहरण देता हूँ. वाल्टर लिपमैन क्रिल कमीशन के सदस्य थे और लगभग आधे दशक तक अमेरिका के सम्मानित पत्राकारों में शुमार रहे. मेरे कहने का मतलब है कि वे गंभीर अमेरिकी पत्राकारिता के पुरोधा रहे. उन्होंने 1920 के दशक में लोकतंत्रा की प्रगति पर कई लेख लिखे. उन्होंने प्रोपैगैंडा पर बड़े स्पष्ट तौर पर कई रचनाएं कीं. वे कहते हैं कि लोकतंत्रा में सहमति का निर्माण करना एक नई कला है. एडवर्ड हरमैन और मैंने यह कला किताबों से ली है, जो लिपमैन के जरिये ही आया. सहमति के निर्माण के द्वारा आप एक वास्तविकता से निजात पाते हैं, जैसे बहुत सारे लोग बिना वजह के भी वोट देने के अधिकार का इस्तेमाल करते हैं. हमलोग इसे कभी-कभी असंगत भी बना देते हैं. हम दरअसल सहमति का निर्माण करते समय ऐसी सरंचना तैयार करते हैं कि लोगों को उन्ही विकल्पों और तरीकों के आधार पर काम करना होता है. हम जैसा कहते हैं, लोग वैसा ही करते हैं. इसलिए हमारे पास एक वास्तविक लोकतंत्रा है. यह अच्छे तरीके से काम करेगा. यही पाठ प्रोपैगेंडा एजेंसियों द्वारा भी पढ़ाया जाता है.

संस्थागत संरचना से मेल खाने से काम करने के तरीकों की भविष्यवाणी आसानी से की जा सकती है और यह भविष्यवाणी भी निश्चित होती है. लेकिन इस निष्कर्ष पर बहस की अनुमति नहीं है. यह मुख्यधारा की भाषा का अब हिस्सा है लेकिन यह अंदर के लोगों के लिए है. जब आप काॅलेज जाते हैं, तो आप यह नहीं पढ़ते कि लोगों का मानसिक नियंत्राण कैसे किया जाता है. जेम्स मैडलिन ने कहा था. कि नए तंत्रा का मकसद अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यक से बचाना है. वैसे यह संवैधानिक तंत्रा की आधारशिला है और इसलिए लोग इसे पढ़ना नहीं चाहते हैं. इसे पढ़कर आप स्काॅलरशिप भी नहीं पा सकते और यह कठिन भी है.

यह मोटे तौर पर ऐसी संस्थानों की ऐसी तस्वीर है, जो मैंने अपने मनोमस्तिष्क में तैयार की है. इसलिए कई बार ऐसा होता है कि आपके दिमाग को भ्रमित कर दूसरी बात डालने की कोशिश की जाती है. मैं सोचता हूँ कि आपको जो पाना है, उसका अनुमान आप स्वयं लगा सकते हैं.

(अनुवादक: बिजनेस स्टैंडर्ड से संबंद्ध)

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